Sunday, December 10, 2006

मां

मां
क्या रहा हूंगा जन्म से पहले,
कह नहीं सकता.
हां,
सोच जरूर सकता हूं,
अपने जन्म का हादसा.
हादसा?
क्या सही कहा मैंने?
हादसा तो
दुखद घटना के लिये प्रयुक्त होता है न?
फिर मेरे जन्म पर तो,
ढोल मन्जीरे बजे थे.
गांव भर की औरतौं ने,
बधाई गीत गा गा कर,
खुशी में नाच नाच,
खूब उल्लास किया था.
फिर ये कैसी दुर्घटना?

कहीं ऐसा तो नहीं,
कि लोगों ने, पीडा पर,
भविष्य की अपेक्षाओं का, मर्हम लगाया हो?

सबसे पहले,
एक अबोध महिला के गर्भ में,
भ्रूण रूप में,
मैंने अस्तित्व पाया.
मेरे उस सूक्षम रूप ने दिया,
एक अनौखा दर्द उस विवाहिता को.
एक ऐसा दर्द,
जो पीडित करने के बाद्
उसे हर्षित कर गया.
वह पीडित, मगर हर्षित....

पूछा जब मेरे पिता ने,
...क्या हुआ?
...यह उल्टी कैसी?
एक अनौखी लज्जा से,
सिमट कर रह गई, अपने ही आप में....
जैसे भविष्य की अपेक्षाओं का मर्हम लगा,
शांत कर गई हो, उस प्रथम पीडा को...

फिर मैं/ पाता रहा नित्य पोषण.
उसके गर्भ में रहकर, सी के रक्त से....
मेरे अंगों का बनना,
मेरे शरीर का विकसित होना,
देता था उसके अंगों को खिंचाव,
और जिश्म को अजीब सी पीडा..
जो दर्द होकर भी कुछ दर्द ना था.
पीडा पर मर्हम लगाती सपनों का.
फेरती हाथ, अपने उदर पर,धूप में लेट कर.
वक्ष में एक आत्मीयता का अनुभव
और उदर में पीडा....
पीडा जो बढ रही थी, मेरे बढने के साथ साथ...
पिता को पता नहीं,इस पीडा का भान था भी, या नहीं?
पर वह भी कम हर्षित न थे.
क्योंकि अपेक्षाओं का जन्म उनके मानस में भी हो चुका था...
एक दिन,
उस कोठरी का
कौना, कौना सहम सा गया.
जब उसकी बिलखती, चीखती, लौचती
कर्णभेदी ध्वनी ने,
संकेत दिया मेरे पृथ्वी आगमन का.
उसकी वह असहनीय पीडा,
कल्पना मात्र शरीर को हिला कर रख देने वाली.
आज यदि वह उस पीडा का अंश मात्र भी दे मुझे,
तो मैं शायद उसका त्याग तक कर सकने कि सोच लूं....
ऐसी पीडा को कैसे किया उसने सहन?
उसे क्या चाहिये था मुझसे?क्या था मुझमें ऐसा?
कि झेल गई वह,
एक मर्मांतक पीडा.
शायद भविष्य की अपेक्षाओं का,
मर्हम लगाकर...
हो सकता है आप नाम दें इसे,
प्रकृति के नियम का.
पर क्या प्रकृति का नियम एक के लिये है?
एक करे पालन, और दूसरा करे पलायन
अपने कर्तव्यों से......
मेरा जन्म पीडा से भरा था.
अब मेरा जीवन भी तो पीड ही दे रहा है उसे...
क्या मैं कर पाया, उसकी एक भी इच्छा का,शब्दसः निर्वाह?
क्या वह खुश हो सकती है,मेरे आज के गुप्त कर्मों को जान कर....
क्या मैं कर सकता हूं,उसके संदर्भ में
अपने जीवन का मूल्यंकन?

शायद हां.......
क्योंकि वह तो ऐसी ममता कि प्रतिमूर्ति है...
जो चाहती है, अल्पतम.
हो सकती है सन्तुष्ट मात्र इतने भर से भी....
कि उसकी घोर पीडा से जो पैदा हुआ था,
वह सच्चा ना भी सही पर झूठा ना हो....
भले अच्छा न बन सके पर बुरा भी ना बने.....
बहुत ऊंचा ना सही, पर एकदम बौना भी ना हो...
प्यार उसे बेसक ना दे, पर ना करदे त्याग उसका...
चरित्र रहे ना रहे, पर उसे सुनना ना पडे कभी,
अपने पीडादाई निर्माण का अपमान.
वह उसका सम्मान, आदर और खुशहाली ही तो चाह्ती है..
और प्रत्येक वर्ष मनाती है, जन्म दिन उसका.
शायद लगाती है फिर मर्हम आशा का अपने निराशाओं के घाव पर.
उस मा को कौटि कौटि नमन,
जो देती हैं मुझ जैसे असख्य बेटों को जन्म.....

योगेश समदर्शी
अक्टूबर' १९९६

5 comments:

अभिषेक पाण्डेय said...

योगेश जी,

बहुत ही अच्छी कविता लिखी है आपने। बस समझिये, मेरे अंतर्मन में आपकी यह रचना बैठ गयी। मेरे पास अब शब्द नहीं बचे हैं इसके मान के लिये। आप हमेशा अच्छी कवितायें लिखते रहिये और पुरानी रचनायें भी प्रकाशित करते रहिये।

सादर,
अभिषेक

राजीव रंजन प्रसाद said...

no words yogesh jee
outstanding..

Rajeev

Upasthit said...

Yogesh ji,
Kavita badhi to pure josho kharosh se par ant tak aate aate aap adarshvadi ho gaye...aisa kyun. main samajh nahi paa raha ki kavitaa me itna bhatkaav aap jaise sadhe haath vale kavi ne kaise aane diya... Har kahin direct dil se nikal rahi batein, kabhi kabhi klishtata ki oor badh jaati hain. kavita apni sampurnata me prabhavit hi karti hai par saath hi ek vishesh pathakeeya dairya ki maang bhee karti hai...

Unknown said...

Namaskar yagesh ji,
Bahut achha prastut kiya hai aapne itna achha presentation itna clear ki her koi samajh sake lajawab....
Keep it........
Wish u all the best ......
Happy new year..

Veeresh

Dr. Seema Kumar said...

मन को छू गई रचना ।

कविता नहीं, पर एक स्त्री क नज़रिया है, यहाँ देखें : http://seemakumar.blogspot.com/2006/01/child-birth.html

 
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