Wednesday, June 15, 2022

सीखने चाह रखना और सीखना आना दो अलग बात है

 मैंने कई लोगों को जो बहुत कुछ सीखना चाहते हैं। वो सीखने की लालसा लिए घूमते हैं भटकते हैं। घुमते रहते हैं। किंतु सीखते नहीं है। जो सीखता है वो घूमता या भटकता नहीं बस सीख जाता है। हमारी अपनी चेतना इतनी प्रबल होती है कि यदि हम चाहें तो स्वयं ही, स्वयं से ही प्रयोग करके बहुत कुछ सीख सकते हैं। क्या सीखना है सबसे पहले यह प्रबल वेग आपके चित्त में होना आवश्यक है। अगर ये स्पष्ट हो जाए कि मुझे ये सीखना है तो बात बनने लगती है। लेकिन इसके बाद एक और प्रश्न है जो बहुत महत्तव का है, और वो है कि सीखना क्यों है? ये प्रश्न इतना महत्तव का है कि यदि इसका उत्तर जरा भी वैकल्पिक रहा तो सीखने का प्रश्न धुमिल हो जाएगा। जैसे मुझे खाना बनाना सीखना है। ये तो क्या का जवाब है। और क्यों का जवाब यदि ये है कि यदि मैंने खाना बना कर नहीं खाया तो मर जाऊँगा। तो फिर आपको कोई सिखाने वाला हो या न हो आप खाना बनाना स्वयं की प्रेरणा से ही सीख जाएंगे। अगर जवाब ये रहा कि बस ऐसे ही कभी कभी खुद भी बना कर खा लिया करेंगे। यदि क्यों का जवाब ये हुआ तो आप कुक एक्सपर्ट को खोजने में समय लगा दोगे। लेकिन यदि पहला जवाब हुआ तो आप तुरंत प्रयास करने लगोगे। एक बार विफल, एक बार स्वाद की समस्या आएगी, किंतु लगातार अभ्यास करते करते आप स्वयं से ही सीख जाएंगे। हाँ स्वयं के सीखने की प्रकि्रया में समय और संसाधन दोनों खराब अवश्य होंगे। किंतु अनुभव का स्तर उतना ही बड़ा होगा। सीखने के क्रम में यही बड़ी बात है कि सीखना क्यों है का जवाब कैसा है। जीवन मरण का प्रश्न हो तो जीवन की चाह जीने के तरीके स्वयं बना लेती है। किसी को जीना सिखाना नहीं पड़ता। एक बालक को माँ होते ही जंगल में छोड़ आई, वो 24 घंटे तक सर्ववाइव करता रहा, उसके अंतस की जीवटता के कारण ही ऐसा हुआ, उसको कोई बाह्य ज्ञान तो उस वक्त था ही नहीं। उसकी चेतना की समझ ही उसे संघर्ष करने की प्रेरणा देती है। शरीर की क्षमताएं अपने आप हमारी चेतना की तरह काम करने लगती है। 

कुछ लोग सीखने जाते हैं और पहले जिससे सीखने बैठते हैं उसकी योग्यता की जाँच करने लगते हैं? शंका में रहते हैं। बात साफ है जब आपका चित्त यह बात स्वीकार ही नहीं कर पा रहा है कि सामने वाले के पास आपको सिखाने जितनी सामर्थ्य है तो फिर आपका सीखना संदिग्ध ही है। इस लिए सीखना आना चाहिए। आप किसी योग्य व्यक्ति से भी सीख लोगो तो भी आप पूरा सीख जाओगो यह निश्चित नहीं, हर योग्य व्यक्ति सब जानता है यह निश्चित नहीं। आप जितना सीखोगे उससे कहीं अधिक आपके अंदर स्वयं जागृत हो सकता है। अत: सीखने से पहले समर्पण का भाव जरूरी होता है।

- योगेश समदर्शी

Wednesday, January 28, 2015

मैं गाँवों की पीड़ा गाने गाँव गाँव में जाता हूँ

मैं गाँवों की पीड़ा गाने गाँव गाँव में जाता हूँ 
अपने दिल का दर्द गाँव में अपनों को दिखलाता हूँ 
मैं खेतों की खलिहानों की पीड को भाषा देता हूँ 
घोर निराशा में कृषक है मैं उसको आशा देता हूँ 
संस्कृति का एक देवालय पड़ा है सूना गाँव में 
संस्कार पलते बढ़ते थे जहां पीपल की छाँव में 
- योगेश समदर्शी

Friday, August 21, 2009

आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा...

"असली भारत" आज अकेला ढूंढ रहा है कहां तिरंगा? 
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा... 
 नारंगी उस रंग का मतलब जो था हमको गया बताया 
भ्रष्ट हुआ ईमान घूमता धन का रंग है सब पर छाया 
देश प्रेम का भाव घट रहा, चिंतन घूम रहा बेढंगा.. 
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा... 

 ध्वल सफेदी का संदेश, आज भला हम किस्से पूछें? 
जिसको देखों अकड रहा है और पनाता अपनी मूंछें 
ज्ञान धूप में रिक्शा खींचे. लूट का पैसा बढता चंगा.. 
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा... 

 हरियाली पथरीली बनती ताड सरीखी उगी इमारत 
भाई चारा गया भाड में खूनी होती गई इबादत 
आजादी का मक्खन निकला और विकास का रंग दुरंगा. 
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा... 

एक किनारा उधर बढा है एक खाई नित होती गहरी 
एक की मनचाही सब बातें एक की जीवन रेखा ठहरी 
एक के हाथों खूब कचौडी और एक है घूमे नंगा. 
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा... 

सच का मतलब शीना-जोरी पछतावे के बंद रिवाज 
स्वच्छंदता नित बढती ऐसे जैसे बढे कोढ में खाज 
आस्तीन जिनका घर होता उनके शीने सजा तिरंगा. 
आह्! तिरंगा, वाह तिरंगा... 

वह रंगों की बात करेगा जो बेमेहनत धन पा जाए 
उसको क्या रंगो से लेना भूख में जो पत्थर खा जाए 
खुशहाली के रंग अनेकों पर दुख होता है बेरंगा 
आह! तिरंगा, वाह तिरंगा...

- योगेश समदर्शी

Saturday, August 15, 2009

...जो विकसित तो न थे पर सुखी अवश्य थे...

आज फिर देश के ऐतिहासिक स्मारक पर प्रधान मंत्री जी का भाषण हुआ. बातें बहुत बडी बडी हुई. ठीक वैसे ही जैसे होती हैं. मैं कोई विश्लेषक नहीं और न ही कोई कोलमिस्ट हूं किं मैं इस भाषण पर टिप्पणी करूं. फिर मैं कौन हूं. जी हां यह सवाल सही है. मैं हूं एक आम आदमी. मैंगो प्युपिल. लाल किले की प्राचीर से ऐलान किया गया कि देश को एक और हरित क्रांति की जरूरत है. गांव के विकास की जरूरत है. शहरों का विकास तो हो गया. अब गांवों की बारी है. अक्सर यह सवाल भी उठाए जाते रहते है. और ठीक राष्ट्रीय समस्या की तरह कि आज भी देश के अनेक गांव ऐसे हैं जहां बिजली और सडकें नहीं हैं. सवाल वाजिब है. बहस होनी चाहिये इस सवाल पर. पर कितनी बहस, कितने दिन तक? अगर हम सही सही उस सब का संकलन करें जितना इस विषय पर लिखा और कहा गया है तो उसको संजोने के लिये व्यवस्था करना दूभर हो सकता है. मैं विकास की इस परिकल्पना पर कुछ अपनी चिंताएं आपसे बांटना चाहता हूं. एक बात बताईए यदि हम शहरों को विकास का माडल मान लें. तो क्या आप एक स्वर मे सभी शहर वासियों से यह सुन सकते हैं कि यह सही माडल है. और यहा मानव सुरक्षित और सुख से जी रहा है. आम आदमी जो शहरों में रहता है. क्या हर तरह से सुखी है. चैन से जी पा रहा है.? और दूसरा सवाल यह कीजिये, उन लोगों से जो गांव छोड कर विकास का स्वाद लेने के लिये कुछ सालों पहले ही शहरों मे प्रतिस्थापित हुए हैं कि वह यहां इस विकास में ज्यादा सुखी है या उस अविकसित गांव में ज्यादा चैन से रहते थे. ज्यादा मानवीय तरीके से रह पा रहे थे. न कोई झंझट था और न कोई बहुत बडा खतरा ही था. तो मुझे लगता है कि जवाब कोई सकारात्मक नहीं मिलने वाला. लोगों को याद आती है गांव की चैन भरी सांस की. याद आती है गांव के उल्लस की. लोगों के आपसी प्रेम और सदभाव की याद अभी हम सबके दिलों मे बसी हुई है. धन, सुख साधनों और तथाकथित संपंननता से बहुत बडी चीज होती है मन की शांति.. जो गांव में निर्धन से निर्धन के पास पायी जा सकती है पर शहर मे धनिक से धनिक इससे वंचित देखे जा सकते है. तो फिर विकास का मतलब मानव की जीवन के लिये क्या हुआ. बडी बडी इमारतें बना लेना. फैंक्टरिया ही फैक्टरिया लगा लेना. रात दिन काम में लगे रहना. मशीनों के साथ आदमी का भी मशीन हो जाना. शरीर और प्रकृति का जो अपना अलग सम्वाद और सहयोग पर आधारित प्रक्रम है वह सब ध्वस्त कर देना. ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्दों का पैदा हो जाना और उसकी रक्षा और बचाव के नाम पर ही रोजी रोटी कमाने का धंधा बना लेना. जैसा कि इस समस्या पर कई सारी स्वयंसेवी संस्थाएं खडी हो गई है. और पूरे ऐशोआराम से इस काम को कर रही है. न तो उनके पास ग्लोबल वार्मिंग से बचने का कोई ठोस उपाय है और न ही कोई इसका व्यव्हारिक समाधान. यह संस्थाएं कहती तो है. कि ऐसी और फ्रिज की गैस से ओजोन परत का छेद बडा हो रहा है पर कहती हैं ऐसी कमरो में बैठ कर. बडे बडे फ्रिजों कि गिरफ्त में जीते हुए, तो ऐसे में भला ग्लोबल वार्मिंग का क्या बिगाड लेंगे ये लोग. दरसल समाजसेवा भी फैशन और स्टेटस सिंबल की भांति कुछ लोगों में पनप रहा है. जैसे कोई फिल्मी हंस्ती जेल में समाज सेवा करने पहुंच गई हो. पर यह सब ड्रामा है. और ड्रामा वास्तविकता से बेखबर होता है. हां रोचकता और मनोरंजन से भरपूर होता है. पर वास्तविकता में व्यक्ति और प्रकृति को आपसी संबंधों के आधार पर जीवन यापन करना होगा. विकास और ज्ञान दोनों में क्या रिश्ता है. विज्ञान की भी कुछ् सीमाएं होनी चाहिये. एक बात ऐसे समझना चाह्ता हूं कि. हम सबने विज्ञान से यह तो हांसिल कर लिया कि घोर गर्मी हो तो ऐसी से उस्से राहत पाई जा सकती है. हम पाने लगे. पर धीरे धीरे हमारा शरीर उसका आदि हो गया और बिजली के गुलाम हो गये हम. यदि बिजली नहीं तो हमारा जीवन असंभव जैसा लगता है. अब सोचिये अच्छी बात क्या है ? एक कि यदि बारिस हो तो हमें छाता चाहिये. नहीं तो हम बीमार हो जाएंगे, सर्दी हो तो हीटर चाहिये नहीं तो हम ठंड से मर जाएंगे और यदि गर्मी हो तो ऐसी चाहिये नही तो गर्मी से हम मरे. या दूसरी बात कि चाहे जो हो. हमारा शरीर हर मौसम के लिये तैयार है. बारिस में भीग कर हम उत्सव करेंगे. सर्दी में हम स्वास्थ्य वर्धक खा पीकर और ज्यादा कसरत करके शरीर को फैलादी बना लेंगे और गर्मी का हम पर असर ही नहीं होगा. और यह सब बिना किसी अतिरिक्त व्यय के केवल शारिरिक परिश्रम के संभव है. आश्चर्य की बात नही है. हामारे विज्ञानिकों ने यह नुक्ते भी हमें बताए थे. और इनपर आधारित एक जीवन शैली भी विकसित हुई थी जो जंगलों में प्राकर्तिक तरीके से रहते थे. बिना किसी संसाधन के मौज मस्ती के साथ पूरी नैतिकता के साथ , भगवत भजन और जीवन के सुखद अनुभव की कामना को संजो कर. पर इस विकास के भूत ने सब सटक लिया है. धरती पर हमने कंकरीट और तारकोल की परतें चढा दी है. पानी पडता भी है तो धरती के गर्भ तक नहीं जाता और धरती प्यासी मर रही है. सोचिये अभी ऐसा केवल शहरों मे हुआ है. जहां हम विकास मान रहे है. सुख की खोज में भाग रहे है. जब यही विकास नाम का राक्षस गांव में पहुंचेगा तो बिल्कुल वही हाल गांव मे भी होगा. अब एक बात और प्रधान मंत्री को गांव की याद हरित क्रांती के लिये आ रही है. पर हरित क्रांति कैसे होगी जय जवान जय किसान के नारों की खोखलाहट को कैसे ढक पाएंगे हम. ज्याद सम्मान और पावर तो मिले किसी को सब धनिकों और राजशाही ठाठ पर जीने वाले लोगों की संताने तो करें व्यापार, बने मालिक बडी बडी कम्पनियों के. बने इंजीनियर, डाक्टर, और लूटे मौज. किसान करे किसानी, किसान के बेटे जाएं फौज में, खपें सीमा पर, और अब करें हरित क्रांति यानि उपजाएं दालें, अनाज, क्योंकि शहर में इसकी कीमत बढ रही है. और जब किसान लोग सब उपजा लेंगे तो शहरों से सडको के रास्ते उनका सारा अनाज हम शहर ले आएंगे. इस काम के लिये हम गांव तक सडकें भी बनाएंगे. और गांव के आस पास ही हम उनके उत्पादन को पैक करके बेचने के लिये फैक्टरिया भी लगा देंगे. और फैक्टरियो के लिये बिजली भी जरूरी कर दी जाएगी. तो इस तरह गांव में भी विकास पहुंच जाएगा. गांव के लोग जो शाम ७ बजे तक आराम से सो जाते थे या हैं. वह भी देर रात तक इन फैंकटरियों के शोर शराबे से नहीं सो पाएंगे. प्रात काल नहीं उठा पाएंगे, टेंसन मे आजाएंगे तो हम उन्हें शराब पिला कर इस टेंशन से मुक्ति देंगे. विकास का अर्क है यह, इसके बिना पिये विकास की कीमत हमें समझ ही नहीं आती, विकास के इस ढांचे में शराब पीना, पानी पीने से भी ज्यादा जरूरी होता है. वर्ना यह विकास लोगों को मार्फत ही नहीं आयेगा
गांव के विकास की बात सुन कर मैं तो परेशान सा हुआ. पता नहीं क्यों जबकि मैं तो गांव छोड चुका हूं विकसित नगर मे रहता हूं. जिस दूरी को पैदल बडे आराम से आधा घंटे में पार कर सकता था उसक दूरी को पार करने के लिये धक्का मुक्की की इस्थिति में पशीने पशीने हो कर पूरे एक या डेढ घंटे में पार करता हूं. १८ घंटे काम करने के बाद भी गरीबी की रेखा से जरा सा ही ऊपर उठ पाया हूं. और यह जरा सा ऊपर उठपाने की बात कहने की हिम्मत बैंको के हर महीने बंधी हुई किश्तों से ही पैदा हुई है. वर्ना पता नहीं इस विकास नगरी में मैं कैसा और क्या होता... भगवान कोई गांव के अवशेष बचा सके तो बचा लें ताकि आने वाली पीढी को समझाया तो जा सके कि नहीं सुकुन और चैन से जीवन जीने का तरीका इसी धरती पर बहुत पहले इजाद हो चुका था... जो विकसित तो न थे पर सुखी अवश्य थे...

Saturday, March 7, 2009

इस होली पर कैसे, करलूं बातें साज की

अभी हरे हैं घाव,
कहां से लाऊं चाव,
नहीं बुझी है राख,
अभी तक ताज की

खून, खून का रंग,
देख-देख मैं दंग,
इस होली पर कैसे,
करलूं बातें साज की


उसके कैसे रंगू मैं गाल
जिसका सूखा नहीं रुमाल
उन भीगे होठों को कह दूं
मैं होली किस अंदाज की
इस होली पर कैसे,
करलूं बातें साज की

Wednesday, February 11, 2009

गांव का घर मानव मंदिर, पत्थर का माकान नहीं है.

गांव लोगों के रहने का,
केवल एक स्थान नहीं है.
गांव का घर मानव मंदिर,
पत्थर का माकान नहीं है.

सभ्यता के चरम पै जाकर,
भाव सरल मन में जब आएं.
प्रकृति की गोद में खेलें,
पछी संग बैठे बतियायें.
खुली हवा में करें ठिठोली,
अंदर तक चित्त खुश हो जाए.
गांव छोड कर ऐसे सुख का,
अन्य कोई स्थान नहीं है.
गांव का घर मानव मंदिर
पत्थर का माकान नहीं है

अपवादों को भूलो, पहले,
गांव का विज्ञान उठाओ.
कम साधन में जीने का,
वह पहला सुंदर ज्ञान उठाओ.
सहभागी हो साथ जिंएंगे,
जीवन एक अभिनाय उठाओ.
कल यंत्रों से चूर धरा को,
धो दे वह अरमान नहीं है.
गांव का घर मानव मंदिर,
पत्थर का माकान नहीं है.

Tuesday, February 10, 2009

मैं न जाने कहां आ गया हूं प्रदेश के गांव मे.

मैं न जाने कहां आ गया हूं प्रदेश के गांव मे.

कच्चा एक माकान,
मिट्टी का सामान,
रेतीला सा आगन,
एक भोला सा मन,
लकडी वाला हल,
सरसों वाली खल,
लोटा भर के छाय,
काली वाली गाय,
यदि कहीं दिख जाय,
तब बोलूंगा आज आ गया अपने देश के गांव में.,
मैं न जाने कहां आ गया हूं प्रदेश के गांव मे.,

पुट्ठे वाले बैल,
जोशीले से छैल,
शरमीली सी नार,
तेल तेल की धार,
हरियाले से खेत,
उपजाऊ सा रेत,
पंगत में बारात
पीतल की पारात
लगने वाली बात
से यदि हो जाये मुलाकात
तब बोलूंगा आज आ गया अपने देश के गांव में.,
मैं न जाने कहां आ गया हूं प्रदेश के गांव मे.,


सरसों वाला साग
अट्ठखेली का फाग
बिन पैसे की टीड
छप्पर ठाती भीड
गांव भर की लाज
एक रोटी एक प्याज
भैंसो से भी प्यार
मेहनत को तैयार
खुशी खुसी बैगार
यदि कहीं दिख जाय,
तब बोलूंगा आज आ गया अपने देश के गांव में.,
मैं न जाने कहां आ गया हूं प्रदेश के गांव मे.,
 
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