Friday, April 13, 2007

आज फिर आंख रोने बिलखने लगी

गांव के हाल पर,बेसुरी ताल पर.
एक बुढिया बिलखती रही हाल पर.
अपने बेटे के चित्र से लिपटने लगी.
आज फिर आंख रोने बिलखने लगी.

दूर परदेस में, शहर से वेश में
बेटा रहता था, महंगे परिवेश मे.
रात सपने में मां उसके आई थी पर
वो थी उस देश में ये था परदेस मे.

उसके अंतस में ममता सुलगने लगी.
आज फिर आंख रोने बिलखने लगी.

मां की चिट्ठी ने बोला वो बीमार है.
बेटा बोला कि वो भी तो लाचार है.
बास कहता है पैसे भिजवा दे घर,
वहां डाकटर की ही तो दरकार है.

पैरों की जमीं सी खिसकने लगी.
आज फिर आंख रोने बिलखने लगी.

5 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

योगेश जी..
बहुत गहरा दर्द है यह, माँ का भी और बेटे का भी। यह आर्थिक तरक्की की सामाजिक दिशा है, मन भीग गया इसे पढ कर।

*** राजीव रंजन प्रसाद

काकेश said...

अच्छी कविता है भाई, दर्द और घुट्न का अहसा कर गयी ये तो.

काकेश

Ramashankar said...

वहां डाकटर की ही तो दरकार है...
यही आज की हकीकत है. दुखती रगों को यूं कविता में समेटने का तरीका बेहतर रहा. टीस यहां भी उठ गई.

Udan Tashtari said...

वेदना और घुटन का सजीव शब्द चित्रण!!

Girish Kumar Billore said...

uttam

 
blogvani