Thursday, September 20, 2007

यह जमीं है गांव की

गौर से देखो इसे और प्यार से निहार लो
आराम से बैठों यहा पल दो पल गुजार लो
सुध जरा ले लो यहां पर एक हरे से घाव की
कि यह जमीं है गांव की, हां ये जमीं है गांव की......

कुल कुनबा और कुटुम का अर्थ बेमानी हुआ
ताऊ चाचा खो गये सब खो गई बडकी बुआ
गांव भर रिश्तों की कैसी डोर में ही था बंधा
जातियों का भेद रिशतों की तराजू था सधा
याद है अब तक धीमरों के कुएं की छांव की
कि यह जमीं है गांव की, हां ये जमीं है गांव की......

आपसी संबंधों के चौंतरों पर बैठ कर
थे सभी चौडे बहुत ही रौब से कुछ ऐंठ कर
था नही पैसा बहुत और न अधिक सामान था
पर मेरे उस गांव में सबका बहुत सम्मान था
मांग कर कपडे बने बारातियों के ताव की...
कि यह जमीं है गांव की, हां ये जमीं है गांव की......

गांव का जब से शहर में आना जान हो गया
गांव का हर आदमी अब खाना खाना हो गया
सैंकडों बीघे का मालिक गांव का अपना ही था
तन्खवाह के चक्कर मे रामू शहर में है खो गया
बात करनी है मुझे उस दौर के ठराव की...
कि यह जमीं है गांव की, हां ये जमीं है गांव की......

7 comments:

Ashish Maharishi said...

गांव का जब से शहर में आना जाना हो गया
गांव का हर आदमी अब खाना खाना हो गया

बहुत सही कहा आपने

राजीव रंजन प्रसाद said...

योगेश जी,

आपकी कलम मिट्टी से जुड कर चलती है इस लिये बेहद प्रभावित करती है।

सुध जरा ले लो यहां पर एक हरे से घाव की
कि यह जमीं है गांव की, हां ये जमीं है गांव की......

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Udan Tashtari said...

कुल कुनबा और कुटुम का अर्थ बेमानी हुआ
ताऊ चाचा खो गये सब खो गई बडकी बुआ

--वाह महाराज, बड़ी शिद्दत से याद किया है बीते दिनों की. बहुत बढ़िया बांधा है.

बधाई/

Unknown said...

बेहतरीन कविता, "नॉस्टेल्जिक"...

चलते चलते said...

सुंदर रचना। पैसा तुने बहुत कमाया, इस पैसे ने देश छुड़ाया...यही हालत होती है अपनी जमीन छोड़कर महानगर और शहर में आकर। मजा आ गया...कई पुरानी यादें ताजा हो जाती है ऐसी रचनाएं पढ़कर और हर आदमी को सोचने पर मजबूर कर देती है कि उसने अब तक क्‍या पाया और कितना खोया।

Mohinder56 said...

योगेश जी, ये जितने भी फ़लते फ़ूलते पेड आप शहरों में देख रखे हैं यह सब हालात की आंधी में गांव से टूट कर शहर में आ कर पनप रहे हैं..जड अब भी गांव में ही है...बस मजबूरी है... पेट की...या रोजगार की..

सुन्दर रचना के लिये बधाई

विपिन चौहान "मन" said...

सच योगेश जी आप के तो मुझे अपना कायल बना लिया
मुझे नही पता था कि आप इस स्तर क लेखन रखते हैं
जमीन से जुडी हुई रचना है और इतनी सरलता से आप ने अपने भाव प्रस्तुत किये हैं कि बरबस ही मुख से वाह निकल्ती है
सुन्दर अति सुन्दर

 
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