आज सवेरे बींच शहर मे एक नन्हे बालक को देखा
साहब देखे एक कार में, एक रिक्शा चालक को देखा
साहब ब्रेड चबाते देखे, रिक्शा चालक पैर चलाते
बालक रोटी मांग रहा था मैं था दर्शक पथ पर जाते
पेड के नीचे रुक कर झाडी मैने मैली धूल पांव की
आज ना जाने क्योंकर आई, आई मुझको याद गांव की.......
गांव में मेरे ढेर गरीबी, उतनी जितनी हो सकती है
बदहाली ढोती मजबूरी, जो बैठ साल भर रो सकती है
तन भी नगा और मकां के नाम पे केवल छप्पर भर है
चुल्लू भर पानी सी सांसे, जीवन खाली सी गागर है
फिर भी पूरे गांव भरोसे, भूला चिंता बडे घाव की....
आज ना जाने क्योंकर आई, आई मुझको याद गांव की.......
Friday, September 28, 2007
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10 comments:
achhi kavita
aap ki kavita ne mujhe ek baar phr se Gaon dekhane par vivas kar diya hain..
मुंबई में भी कई गांव है जैसे गोरेगांव, गिरगांव। असल में मुंबई भी कई गांवों को जोड़कर बना महानगर है लेकिन गांव की पहचान अभी भी है। कविता अच्छी है और पुरानी यादें ताजी करती है। लिखते रहिए लेकिन आर्थिक मामलों के बीच साहित्य कम ही समझ में आता है।
योगेश जी
अच्छी कविता। थीम अच्छा पेर कुछ और अच्छा हो सकता है।.. मेरी बातो को अन्यथा न लें।
बाकी कविता पंसद आयी।
पेड के नीचे रुक कर झाडी मैने मैली धूल पांव की
आज ना जाने क्योंकर आई, आई मुझको याद गांव की.......
चुल्लू भर पानी सी सांसे, जीवन खाली सी गागर है
फिर भी पूरे गांव भरोसे, भूला चिंता बडे घाव की
आपकी रचना और आपके विचारों का मैं बडा कायल हूँ। योगेश जी, आप उन विषयों पर सशक्त कलम चलाते हैं जो भागती दुनियाँ में कहीं पीछे छूट गये हैं, बहुत बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
Pyaare Bhai Yogesh,
kavita me samvedana hai. bunawat me aur kasaav ho sakata tha.
Aapane kavita likhane ka samay nikaala yah hi bari baat hai.
Badhai.
Pankaj Pushkar
योगेश जी बहुत प्यारी रचना लिखी है आप ने
कई बिम्ब बहुत सुन्दर बने हैं
भाव प्रधान रचना लिये आप को बहुत बहुत बधाई
आज ना जाने क्योंकर आई, आई मुझको याद गांव की
--अरे भाई, आपकी रचना तो हमें भी गांव ले गई. बढ़िया रचना के लिये बहुत बहुत बधाई.
योगेशजी,
आपने तो गाँव की याद दिला दी, बहुत सुन्दर...
गांव में मेरे ढेर गरीबी, उतनी जितनी हो सकती है
बदहाली ढोती मजबूरी, जो बैठ साल भर रो सकती है
गाँव की स्थिति सचमूच विकट है, दर्द होता है :-(
sparsh kartee hain aapki bhaavnaayein!
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