आसमान पर बादल जैसे,
बिन बरसे छट जाते हैं.
मेरे जीवन में भी ऐसे,
धन के मौसम आते हैं .
गुडिया को गुडिया देने की,
जब भी हमने ठानी है.
महसूस हुआ है कि अपनी,
तन्खवाह है या बेमानी है.
उसकी फीस मैं जब कोई
अन्य भत्ते जुड जाते हैं
तब जीवन के पलडे में
हम वेतन से तुल जाते हैं
जब त्योहारों के अवसर पर
बजट जरा बढ जाता है
तब हमको अपने खर्चों का
ब्योरा बहुत सताता है.
दूध किराया रशन लेकर
जो थोडा बच पाता है
मर्हम, पट्टी और दवा का
बिल उससे भर जाता है.
उत्सव उनको खुशियां देते
उनको ही हर्षाते हैं
जो तन्खवाह के साथ साथ
ऊपर का पैसा लाते हैं.
योगेश समदर्शी
Tuesday, December 5, 2006
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6 comments:
realistic poem a really sensitive one..congrats.
really nice poem
congratulation
badiya hai! lage rahiye!
आपकी दोनो ही रचनाएँ बहुत सुन्दर लगी.
गुडिया को गुडिया देने की,
जब भी हमने ठानी है.
महसूस हुआ है कि अपनी,
तन्खवाह है या बेमानी है.
आपकी इन पंक्तियों का तो जवाब नहीं,रोजमरा की जिंदगी को आपने कितनी सरलता से शब्दों में पिरोया है, आप निश्चय ही बधाई के पात्र हैं.
आपके पास गुगल खाता हो तो आप गपशप के लिए सादर आमंत्रित हैं, मेरा गुगल पता है -
grjoshee@gmail.com
bahut achhe....
कविता के भाव सुन्दर है इस मे कोइ दो राय नही है परन्तु मात्रत्व के आगे प्रसव पीडा का कुछ महत्व नही रहता, ये सिर्फ़ एक मा ही जानती है
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