Tuesday, February 20, 2007

सवाल

सब सवाल के साथ है भाई,
हल के हक में कौन
आज की सब आपा धापी में
कल के हक में कौन

मुट्ठी का है रेत सरीखा
धन उनके भी पास
इन बाजारों म्रें एक खुशी के
पल के हक में कौन


घर की मुर्गी दाल बराबर,
कटती है हर रोज
कच्ची कोपल कतर रहे सब,
फल के हक में कौन

गांवों में भी अब तो
नस्लें फस्लें बदल गई
सबके हाथों कलम कलूटी,
हल के हक में कौन

योगेश समदर्शी
जनवरी २००७

5 comments:

अभिषेक सागर said...

योगेश जी,
कविता अच्छी है....
प्रयास जारी रखें..
अभिषेक

Unknown said...

cool stuff abhishek!!!
hindi creatives are a dying genre, but by reading stuff you have put, the hope is still there...

Anonymous said...

योगेश जी,

सवाल तो बडा अच्छा िकया है आपने,
इस का हल भी हमही है,बर्ताव हम्हारा..

राजीव रंजन प्रसाद said...

बहुत ही सुन्दर कविता है योगेश जी, आपके क्रांतिकारी विचार इस कविता से प्रकट होते हैं:


भविष्य की चिंता:

कल के हक में कौन

व्यथा:

इन बाजारों म्रें एक खुशी के
पल के हक में कौन

कच्ची कोपल कतर रहे सब,
फल के हक में कौन

समाधान हीनता का क्षोभ:

गांवों में भी अब तो
नस्लें फस्लें बदल गई
सबके हाथों कलम कलूटी,
हल के हक में कौन...

अनुपम रचना.. बधाई।

Mohinder56 said...

योगेश जी
सर्वप्रथम आप का बहुत बहुत धन्यवाद मेरी कविता पर टिप्पणी हेतु.. साथ ही मेरा मानना है कि अगर कोई सवाल या कोई अडचन होगी तो कोई न कोई उसका उत्तर या हल भी ढंढेगा ........कवि सिर्फ तूफान खडा करते हैं सम्भालता कोई और है... हा हा....वैसे मैं आप से सहमत हूं कि समाधान भी हमें ही बताना है

 
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