Tuesday, February 27, 2007

'सबसे सस्ते और टिकाऊ पति'

आजकल भागम भाग का दौर है. जिसे देखिये भाग रहा है. कई तो इतनी तेज चलते हैं कि 'सबसे तेज' कहने लगते हैं अपने आपको! हां भई आपको स्वयं के बारे में जो कुछ सुनना है, वह आप पहले खुद अपने बारे में कहना प्रारंभ करें. यही वह तरीका है, जो हमेशा 'आपको रखेगा आगे'. और कहने का भी तरीका है साहब. यह नहीं की आप सवेरे उठते ही पत्नी जी को चाय के साथ यह जुमला कह दें - हम हैं 'सबसे सस्ते और टिकाऊ पति'. ऐसा कह भी दो तो कह कर पीछे हट जाना. तुम्हें क्या पता गर्म चाय कितनी गर्म होती है? जीभ जिस चाय से नहीं जलती शरीर का कोई कोई अंग बडी जोर से जलता है जनाब. और फैंकने वाला यह थोडे ही देखता है कि कहां लगेगी. इस लिये कहता हूं कि कहने से पहले, अपने को कुछ भी बनता देखना चाहते हो तो ठीक प्रकार जानकारी ले लो. जानकारी भी गली मोहल्ले के मुफत के सलाहकार से लेने कि जरूरत नहीं है. आजकल हर काम के लिये दफ्तर खुल गये है. डोर स्टैप फैसेलिटी के साथ. यदि अपने को सबसे सस्ते और टिकाऊ पति बनते देखना चाहते हो तो, किसी पी.आर. एजेंसी से संपर्क साधना जरूरी है. फिर काफी पैसा लगाकर इस बात क प्रचार करें. यह प्रायोजित ख्याति अपने मोहल्ले के अंतिम छोर से प्रारंभ करनी चाहिये. जब दूर से चलकर कोई अफवाह आपके घर में प्रवेश पाएगी तो वह सच से भी बडे वाला सच होगा. बस विज्ञापन अच्छे से डिजाईन होना चाहिये. ठीक 'इससे सस्ता और कहां?' की तर्ज पर. खर्चे के खिलाफ मौर्चा भी ऐसे ही लगाया जाता है. एम आर पी पर आने दो आने की छूट आपके पल्ले मे डाल कर वह अपने मोहल्ले के नत्थू भाई साहब की दुकान सटक जाएंगे एक दिन.

दौर है बाजार का,
हर हुनर एक माल है.
आंकडौं का खेल है,
सैंकडों की चाल है.

आ रहे हर ओर से
वेश धर कर देखिये.
मूल्य ऐसे बिक रहे
ज्यों सेल वाला माल है.

क्रिक्रेट वाले देखते
ख्वाब विश्व की जीत का.
हारे जीते कोई भी,
कंपनी मालामाल है.

योगेश समदर्शी
२७ फरवरी २००७
एक मित्र है सतीष जी, उन्होंने हमें कल की पोस्ट पर कुछ सलाह दी, तो हमारे भीतर के कवि ने आशु कवि का कर्तव्य निभाते हुए जवाब कुछ यूं लिखा.
धन्यवाद सतीष जी,
बिन पढे न गढ सके हम कोई प्रतिमान,
आत्मचिंतन रोजका ढाता है अभीमान.
ढाता है अभीमान आप सच कहते भाई,
जोश सधा तो यश मिले वर्ना जगहंसाई.

4 comments:

Anonymous said...

वाह! योगेशजी, आपकी हास्यमय पंक्तियाँ शानदार लगी।

मगर कोई प्रोब्ल्म नहीं भाई, हम अभी तक कुँवारे जो हैं ;)

ePandit said...

हम भी 'बचे' हुए हैं जी अभी तक, नो टेन्शन। :)

योगेश समदर्शी said...

व्यंग में प्रसंग कुछ अलग है भाई, बात की गंभीरता को छोड कर आप कंवारे पन को ले कर बैठ गये, फिर से पढें बात बडी गंभीर है समझ ना आए तो चर्चा की जाए.

Udan Tashtari said...

बहुत खूब, जानदर चुटिला कटाक्ष:

दौर है बाजार का,
हर हुनर एक माल है.
आंकडौं का खेल है,
सैंकडों की चाल है.


बहुत चुभता हुआ सहज व्याख्यान!! बधाई!!

 
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