Thursday, April 12, 2007

कितना बूढा हो गया वो मेरे वाला गांव.

बीमारी तब से बढी जब पडे शहर के पांव.
कितना बूढा हो गया वो मेरे वाला गांव.

दोपहरी में खेत पर ही था बाबा का ठांव.
अब भी पीपल के निकट रुकी हुई है छांव.

पोखर प्यासे हो गये, भूखे पडे हैं खेत.
फसलों के खलिहान पर,आ गये कंकरी रेत.

हल तो चूल्हे मे जला, बैल गये प्रदेश.
उपले पर मिट्टी पडी, बदल गया परिवेश

पहले घर की खाट पर जमी पडी थी भीड
अब ताऊ जी फोन से ही पूछ रहे है पीड.

गांव में सडके गईं, गांव हुए खुशहाल.
या ये इस बाजार की सोची समझी चाल

3 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

योगेश जी आप निस्चित ही जमीन से जुडे हुए व्यक्ति हैं। जिसे माटी का दर्द हो वही इस खूबसूरती से बाजार की चाल को समझ कर गाँव का हाल लिख सकता है..बहुत बधाई इस रचना के लिये..

*** राजीव रंजन प्रसाद

Udan Tashtari said...

हर दोहे में संपूर्ण भाव उजागर हो रहे हैं. गांव की बदलती स्थितियों की वेदना बहुत उत्तमता से प्रस्तुत की है. बधाई.

Anonymous said...

क्या खूब लिखा है - कितना बूढा हो गया है मेरा गांव

 
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