Monday, April 16, 2007

देख उजडती फसल को, रोता रहा किसान.

बेटा पढ लिख कर गया, बन गया वो इंसान.
देख उजडती फसल को, रोता रहा किसान.

सारी उम्र चलाया हल, हर दिन जोते खेत.
बूढा हल चालक हुआ, सूने हो गए खेत.

दो बेटे थे खेलते इस आंगन की छांव.
अब नहीं आते यहां नन्हें नन्हें पांव.

बुढिया चूल्हा फूंकती सेक रही थी घाव.
अबके छुट्टी आएंगे बच्चे उसके गांव.

बडा बनाने के लिये क्यों भेजा स्कूल.
बूढा बैठा खेत पर कोसे अपनी भूल.

खेत बेच कर शहर में ले गया बेटा धन.
बूढे बूढी का इस घर में लगता नहीं है मन.

जब शहर वाले फ्लैट में गये थे बापू राव.
हर दिन उनको वहां मिले ताजे ताजे घाव.

आज पार्क में राव जी की आंखें गयी छलक.
देख नीम के पेड को झपकी नही पलक.

5 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत खूब, योगेश भाई!! वाह!!

Anonymous said...

बहुत सुन्दर योगेशजी,

सभी एक से बढ़कर एक है, आपकी रचनाएँ हमेशा ही जमीं से जुड़ी होती है, अच्छा लगता है।

हर पँक्ति में छलकता दर्द, शायद समय के साथ भागते साथी युवाओं को वास्तविक शांति और सुख की राह दिखा पाये।

सत्य लिखने के लिये बधाई!!!

Anonymous said...

बहुत सुन्दर!
घुघूती बासूती

Anonymous said...

राजीव रंजन जी कहते हैं

र्योगेश जी.

आपकी कविताओं से जो मिट्टी की सोंधी महक उठती है...न सिर्फ अतीत हरा कर देती है वरन वर्तमान के कई जख्म कुरेद भी जाती है।

बहुत ही सुन्दर भाव..बधाई।

Arun Arora said...

योगेश भाइ ये कविता नही रुदन है पर तुमने सजाया बहुत ढंग से है इतना दर्द इतनी सहजता से
हर कडी एक बडे कैन्वास पर उकेरे गये चित्र को सामने ला खडा करती है और सवाल दाग कर मूक हो तुम से उत्तर मागती है

 
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