Monday, February 9, 2009

जीना चाहते है वह मर कर.



नाखुश इतने, नफरत कर कर.
रक्त पीपासा, उर में भर कर.
अपना नया ईश्वर रच कर,
जीना चाहते हैं वह मर कर.

हाथ नहीं हथियार हैं उनके,
मस्तक धड से अलग चले है.
ईच्छा और विवेक से अनबन,
आस्तीन में सांप पले हैं.
काम धर्म का मान लिया है.
जाने कौन किताब को पढ कर.

अपना नया, ईश्वर रच कर.
जीना चाहते, हैं वह मर कर.

खून और चीतकार का जिसने,
अर्थ बदल कर उन्हे बताया.
निर्दोशों को मौत का तौहफा,
दे कर जिसने रब रिझाया.
मां के खून को किया कलंकित,
झूंठे निज गौरव को गढ कर.

अपना नया ईश्वर रच कर.
जीना चाहते हैं वह मर कर.

बचपन की मुस्कान है जीवन,
कांश उन्हें भी कोई बताये.
रास रस उलास है जीवन,
कोई उनको यह समझाये.
क्यों खुद को आहूत कर रहे,
भ्रमित उस संसार में फंसकर.

अपना नया ईश्वर रच कर.
जीना चाहते हैं वह मर कर.

2 comments:

चलते चलते said...

एक उम्‍दा रचना। काश इसे आतंकी भी पढ़ पाते। और हमारे नेता भी। किसी का जीवन खत्‍म करने का ईश्‍वर ने किसी को अधिकार नहीं दिया है। अल कायदा ने कहा है कि वह भारत का नामोनिशान मिटा देगा। लेकिन मुझे भरोसा है ऐसा नहीं होगा और सरकार जल्‍दी जागेगी एवं आतंक से निपटने के लिए कठोर कार्रवाई शुरू करेगी।

Anand Singh said...

very gud bahai
Anand

 
blogvani