है भीड भरा ये शहर यहां पर अहसासों की बात न कर
इन गर्म मिजाजी लोगों से, ठंडी सांसों की बात न कर
पोखर, नदियां, ताल, जलाशय सब उनके कब्जे में आऐ
बिजली बनने दे पानी से तू अब प्यासों की बात न कर
रिश्ते सब पैसों की खातिर देख गुलामी झेल रहे हैं
जब हाथ हाथ से बात छुपाए तू विश्वासों की बात न कर
भोग भोग बस भोग भोग का जीवन अब आदर्श हो गया
भरे पेट खाने वालों से यों उपवासों की बात न कर
Monday, July 23, 2007
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4 comments:
भोग भोग बस भोग भोग का जीवन अब आदर्श हो गया
भरे पेट खाने वालों से यों उपवासों की बात न कर
अच्छी रचना पर थौडी और लम्बी होनी चाहिये थी
रिश्ते सब पैसों की खातिर देख गुलामी झेल रहे हैं
जब हाथ हाथ से बात छुपाए तू विश्वासों की बात न कर
अति सुंदर रचना ....बधाई
बहुत बढ़िया, भाई. और बढ़ाओ इसे.
बहुत अच्छी रचना लिखी है।बधाई।
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