कुछ तो बात बात बस बात बात की खाते हैं
कुछ मेहनत सौ की दो पाकर पछताते हैं
मूल ने अपना दाम खो दिया,
चमक दमक का लगता मोल.
आलू १० का धडी तुलेगा
चिप्स बिके चांदी के मोल
एक वक्त में रुपये हजारों खाते कुछ
कुछ ऐसे हैं जो पानी पी सो जाते है.
श्रम देवता खडा खडा शर्माता है
नया खून है मेहनत से कतराता है
शिक्षा कैसी आज निगूडी बन बैठी
बेटा बाप को अनपढ कह ठुकराता है
उनके घर में पौशाके हैं भरी पडी
नंगे बदन वो देख कपास उगाते है.
Friday, February 15, 2008
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4 comments:
स्वार्थ भरा है जिन भावो मे
कहे उसे व्यापार यहा
बोले मीठा काटे गरदन
देते उसे आभार यहा
सही है-बेहतरीन.
"आलू १० का धडी तुलेगा
चिप्स बिके चांदी के मोल"
सामाजिक संदर्भों के बाजारीकरण पर सटीक लेखनी चलायी है आपने ...
My Thinking is dat market is never democratic.
Sundar Likha hai, Par adhoori lagti hai rachna...
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